Monday, October 17, 2011

कोई मुझको प्रेम सिखा गया .....

अंधकार को हटा कौन , चिर ज्योति को जला गया ...
इस शुष्क और मृत मरुथल में, अमृत का सोता बहा गया ...
वर्षों से भटकते इस मन को, राह सनातन दिखा गया ...
कोई मुझको प्रेम सिखा गया .....!

बाधा अजेय जो लगती थीं, उन्हें जीवन क्रीडा बना गया ...
बल और बुद्धि जो थकती थीं, उन्हें संजीवनी कोई पिला गया ...
संकुचित ह्रदय जो था मेरा, उसको विस्तृत वह बना गया ...
कोई मुझको प्रेम सिखा गया ......!

जो कर्म अनिश्चित लगते थे, कोई निश्चय उनमें मिला गया ....
जो प्रश्न गूढ़ से लगते थे, उत्तर उनका कोई बता गया ...
जो ख़ुशी दूर ही दिखती थी, कोई उसको मन में बिठा गया ...
कोई मुझको प्रेम सिखा गया ....!

अब लहरों सा उछ्रिन्खल हूँ मैं, हिम सा शुद्ध व शीतल हूँ मैं ...    
द्वेष और कटुता हैं छूटे, आनंद खजाने मैंने लूटे ....
पूर्ण समर्पण खुद का खुद को, चुपके से कोई करा गया ...
कोई मुझको प्रेम सिखा गया ....!
कोई मुझको प्रेम सिखा गया ....!

Sunday, March 6, 2011

मैं रूद्र का अनुचर !

मैं रूद्र का अनुचर !

गति में, स्थिति में , सब में, सब पर,
प्रबल , सबल , तप में नित तत्पर ,
जन्म, मृत्यु ,बाहर, अंतर में ,
प्रेम , द्वेष, आनंद, क्लेश में ,
मैं रक्षित , मैं रक्षक , मैं समता , मैं अंतर!

मैं रूद्र का अनुचर !
मेरे गर्जन से सहज ये , दिग्गज डोलते हैं,
दिगपाल मेरे बल से निज बल को तोलते हैं ,
शब्द मेरे झंझा का अनुनाद हैं ,
मेरे अस्तित्व से निर्जीव होते , पीड़ा और विषाद हैं 
मेरी फुंफकार से भयभीत हैं विषधर ! 

मैं रूद्र का अनुचर !

श्रम बिंदु मेरे करते हैं बहुल , स्वल्प को ,
मेरे संकल्प पोषते हैं, श्रष्टा के संकल्प को ,
विचार मेरे कभी अग्नि , तो कभी वज्र हैं ,
कुत्सित को ध्वंश करते, रूद्र से ये उग्र हैं ,
दृष्टि मेरी करती, सुन्दरता को सुन्दर !

मैं रूद्र का अनुचर !

चरण चिह्न हैं मेरे, जग पालक की छाती पर ,
कुलिश कुठार रहा मेरा ही , अगणित गर्वित मस्तक पर ,
मैं देता जलन अग्नि को  , नीर को शीतलता ,
आकाश का अनंत मैं , विद्युत् की चपलता ,
मैं ही वामन और विराट , भंगित और निरंतर !

मैं रूद्र का अनुचर !!
 




Saturday, August 1, 2009

क्यूं गीत नही मैं लिख पाया!

क्यूं गीत नही मैं लिख पाया!

न प्रणव नाद का गुंजन था ,
न ब्रह्म ज्ञान अभिसिंचन था ,
न सजल प्रेम न अटल भक्ति,
कसता जाता बस बंधन था,
अधोगमन जो निश्चित था,
क्यूं न वह मुझको दिख पाया?
क्यूं गीत नही मैं लिख पाया!

अन्तर मन का अनुनाद कहाँ था?
नश्वर जीवन का विषाद कहाँ था?
चतुर चितेरा भ्रमित हुआ क्यूं?
संजीवन का उल्लास कहाँ था?
मन भ्रमर वृत्ति में उलझा था,
कैसे न मुझको दिख पाया?
क्यूं गीत नही मैं लिख पाया!

निद्रित अंतर्दृष्टि हुई क्यूं?
जीवंत हुई नश्वर समष्टि क्यूं?
अंतर्बोध था ठगा हुआ क्यूं?
जगत बोध था जगा हुआ क्यूं?
मन विकल्प का बंदी था,
क्यूं न मुझको यह दिख पाया?
क्यूं गीत नही मैं लिख पाया!

हे प्रिय अनंत अंत की सीमा ,
परिमाण हीन आकार व वीमा,
हे निराश्रयों के नियमित आश्रय,
गुनागार और गुणों की सीमा,
हे श्रष्टा तुम थे सहज साक्षी ,
बस मुझको ही न दिख पाया!
क्यूं गीत नही मैं लिख पाया!

हर बंधन से करते विमुक्त तुम,
व्यापक हो, जाग्रति सुषुप्ति तुम,
संजीवनी के अनंत स्रोत तुम,
प्रेम , दया से ओत प्रोत तुम,
प्रहरी तुम थे सजग हे स्वामी,
अब मुझको है यह दिख पाया,
यह गीत अभी मैं लिख पाया!
यह गीत अभी मैं लिख पाया!


Sunday, May 31, 2009

संतप्त मन कुछ बोलता है.....

संसृति उदधि के मध्य में,
डूबा अहम् के मद्य में,
चिर धीर मानस डोलता है।
संतप्त मन कुछ बोलता है। ।

निर्भीक घूमें अरि वनों में ,
संघर्ष प्रिय जो हर छड़ों में ,
निज बल को वह सिंह तोलता है।
संतप्त मन कुछ बोलता है। ।

घन गहन कालिमा रात की,
न कामना किसी साथ की,
अन्तः किरण को मोलता है।
संतप्त मन कुछ बोलता है। ।

पुष्प का उपवन मिले ,
या कंटकों का वन मिले ,
आनंद में वह झूलता है।
संतप्त मन कुछ बोलता है। ।

रंग हो और राग हो,
या पीड़ा और विषाद हो,
नित चेतना नव खोलता है।
संतप्त मन कुछ बोलता है। ।

जो वह प्रेम का सोता मिले ,
तो यह चिरंजीवी खिले ,
अंतर निज सतत टटोलता है।
संतप्त मन कुछ बोलता है। ।

Sunday, November 23, 2008

कुछ शब्द कहूं या रहने दूँ ?

कुछ कहीं अधूरा छूट रहा है , कर दूँ पूरा या रहने दूँ?

कोई स्वप्न अर्ध ही टूट रहा है, लख लूँ पूरा या जगने दूँ?

कुछ शब्द कहूं या रहने दूँ?

विष बहुत ह्रदय में फ़ैल चुका है, निःश्रित कर दूँ या बहने दूँ,

विपरीत बहुत जग बोल चुका है, कर दूँ बस चुप या कहने दूँ,

कुछ शब्द कहूं या रहने दूँ ?

विशद विश्व मेरा विलास है, कर लूँ करतलगत, या रहने दूँ?

सूरज में मेरा प्रकाश है , कर दूँ अंधियारा, या उगने दूँ?

कुछ शब्द कहूं या रहने दूँ?

स्वांग बहुत दिन कर आया मैं, छोडूं यह मंच, या रहने दूँ?

यह विश्व नाटिका भंग करू , या चलती है जैसे चलने दूँ?

कुछ शब्द कहूं या रहने दूँ ?

मैं दिग्गज हूँ, मैं सबल सिंह हूँ, घन नाद करू या रहने दूँ?

परिवर्तन के इस शुभ मुहूर्त में , मैं जागू , जग को सोने दूँ?

कुछ शब्द कहूं या रहने दूँ?

Friday, November 21, 2008

तमसो मा ज्योतिर्गमय !

घोर तिमिर जब छाता है , सब कुछ विलुप्त हो जाता है।
तब मन नयन पटों पर सबके , सुंदर सपने बुन जाता है।
उस अलसाई बेला में भी एक जोड़ी चक्षु तकते हैं, नयन न मेरे थकते हैं , सब सोते हैं हम जगते हैं।

लगभग सबने विज्ञ कहा , पर फिर भी क्यूं में अज्ञ रहा ?
काली अंधियारी रातों में, जब शशि भी शिशु सा दिखता है,
व्यथित ह्रदय में उस क्षण अनगिन अवसाद उमड़ते हैं । नयन न मेरे थकते हैं , सब सोते हैं हम जगते हैं।

जो ह्रदय शुष्क सा दिखता है, जो श्वांश छुब्ध से लगते हैं ।
जो क्रंदन अब तक मूक रहे , बिन वाणी के सब कहते हैं।
ये धरा अपरिचित लगती है , सब स्वजन पराये लगते हैं, नयन न मेरे थकते हैं , सब सोते हैं हम जगते हैं।

वह कौन व्यथा जो चुभती है , वे कौन विकल्प जो मथते हैं?
सुंदर श्रावण की बूँदें भी क्यूं , अम्ल वृष्टि सी लगती हैं?
क्यूं खुशी परायी लगती है क्यों आंसू अपने लगते हैं, नयन न मेरे थकते हैं , सब सोते हैं हम जगते हैं।

आर्द्र चेतना के तल पर जब शुष्क ह्रदय कुछ लिखता है,
और वह जीवन का अटल सत्य, भटका कोई मानस पढ़ता है,
संक्रांति काल आ जाता है , और सुख दुःख बाहें मिलते हैं। नयन न मेरे थकते हैं , सब सोते हैं हम जगते हैं।

निर्लिप्त बोध जब जगता है माया के बंधन खुलते हैं ।
हर पीड़ा में हर क्रंदन में आनंद हास्य ही दिखते हैं ।
परम शान्ति के उस पल में बस श्वः , स: बातें करते हैं। नयन न मेरे थकते हैं , सब सोते हैं हम जगते हैं।
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