घोर तिमिर जब छाता है , सब कुछ विलुप्त हो जाता है।
तब मन नयन पटों पर सबके , सुंदर सपने बुन जाता है।
उस अलसाई बेला में भी एक जोड़ी चक्षु तकते हैं, नयन न मेरे थकते हैं , सब सोते हैं हम जगते हैं।
लगभग सबने विज्ञ कहा , पर फिर भी क्यूं में अज्ञ रहा ?
काली अंधियारी रातों में, जब शशि भी शिशु सा दिखता है,
व्यथित ह्रदय में उस क्षण अनगिन अवसाद उमड़ते हैं । नयन न मेरे थकते हैं , सब सोते हैं हम जगते हैं।
जो ह्रदय शुष्क सा दिखता है, जो श्वांश छुब्ध से लगते हैं ।
जो क्रंदन अब तक मूक रहे , बिन वाणी के सब कहते हैं।
ये धरा अपरिचित लगती है , सब स्वजन पराये लगते हैं, नयन न मेरे थकते हैं , सब सोते हैं हम जगते हैं।
वह कौन व्यथा जो चुभती है , वे कौन विकल्प जो मथते हैं?
सुंदर श्रावण की बूँदें भी क्यूं , अम्ल वृष्टि सी लगती हैं?
क्यूं खुशी परायी लगती है क्यों आंसू अपने लगते हैं, नयन न मेरे थकते हैं , सब सोते हैं हम जगते हैं।
आर्द्र चेतना के तल पर जब शुष्क ह्रदय कुछ लिखता है,
और वह जीवन का अटल सत्य, भटका कोई मानस पढ़ता है,
संक्रांति काल आ जाता है , और सुख दुःख बाहें मिलते हैं। नयन न मेरे थकते हैं , सब सोते हैं हम जगते हैं।
निर्लिप्त बोध जब जगता है माया के बंधन खुलते हैं ।
हर पीड़ा में हर क्रंदन में आनंद हास्य ही दिखते हैं ।
परम शान्ति के उस पल में बस श्वः , स: बातें करते हैं। नयन न मेरे थकते हैं , सब सोते हैं हम जगते हैं।
Friday, November 21, 2008
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2 comments:
bahut acha hai
bahut dino bad kuch hindi mein pada hai
waise ye apki apni poem hai ya kisi or ki hai
raat me owl jagte hai
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