Friday, November 21, 2008

तमसो मा ज्योतिर्गमय !

घोर तिमिर जब छाता है , सब कुछ विलुप्त हो जाता है।
तब मन नयन पटों पर सबके , सुंदर सपने बुन जाता है।
उस अलसाई बेला में भी एक जोड़ी चक्षु तकते हैं, नयन न मेरे थकते हैं , सब सोते हैं हम जगते हैं।

लगभग सबने विज्ञ कहा , पर फिर भी क्यूं में अज्ञ रहा ?
काली अंधियारी रातों में, जब शशि भी शिशु सा दिखता है,
व्यथित ह्रदय में उस क्षण अनगिन अवसाद उमड़ते हैं । नयन न मेरे थकते हैं , सब सोते हैं हम जगते हैं।

जो ह्रदय शुष्क सा दिखता है, जो श्वांश छुब्ध से लगते हैं ।
जो क्रंदन अब तक मूक रहे , बिन वाणी के सब कहते हैं।
ये धरा अपरिचित लगती है , सब स्वजन पराये लगते हैं, नयन न मेरे थकते हैं , सब सोते हैं हम जगते हैं।

वह कौन व्यथा जो चुभती है , वे कौन विकल्प जो मथते हैं?
सुंदर श्रावण की बूँदें भी क्यूं , अम्ल वृष्टि सी लगती हैं?
क्यूं खुशी परायी लगती है क्यों आंसू अपने लगते हैं, नयन न मेरे थकते हैं , सब सोते हैं हम जगते हैं।

आर्द्र चेतना के तल पर जब शुष्क ह्रदय कुछ लिखता है,
और वह जीवन का अटल सत्य, भटका कोई मानस पढ़ता है,
संक्रांति काल आ जाता है , और सुख दुःख बाहें मिलते हैं। नयन न मेरे थकते हैं , सब सोते हैं हम जगते हैं।

निर्लिप्त बोध जब जगता है माया के बंधन खुलते हैं ।
हर पीड़ा में हर क्रंदन में आनंद हास्य ही दिखते हैं ।
परम शान्ति के उस पल में बस श्वः , स: बातें करते हैं। नयन न मेरे थकते हैं , सब सोते हैं हम जगते हैं।

2 comments:

pnkajdada said...

bahut acha hai
bahut dino bad kuch hindi mein pada hai
waise ye apki apni poem hai ya kisi or ki hai

Unknown said...

raat me owl jagte hai