Sunday, May 31, 2009

संतप्त मन कुछ बोलता है.....

संसृति उदधि के मध्य में,
डूबा अहम् के मद्य में,
चिर धीर मानस डोलता है।
संतप्त मन कुछ बोलता है। ।

निर्भीक घूमें अरि वनों में ,
संघर्ष प्रिय जो हर छड़ों में ,
निज बल को वह सिंह तोलता है।
संतप्त मन कुछ बोलता है। ।

घन गहन कालिमा रात की,
न कामना किसी साथ की,
अन्तः किरण को मोलता है।
संतप्त मन कुछ बोलता है। ।

पुष्प का उपवन मिले ,
या कंटकों का वन मिले ,
आनंद में वह झूलता है।
संतप्त मन कुछ बोलता है। ।

रंग हो और राग हो,
या पीड़ा और विषाद हो,
नित चेतना नव खोलता है।
संतप्त मन कुछ बोलता है। ।

जो वह प्रेम का सोता मिले ,
तो यह चिरंजीवी खिले ,
अंतर निज सतत टटोलता है।
संतप्त मन कुछ बोलता है। ।

5 comments:

दिगम्बर नासवा said...

रंग हो और राग हो,
या पीड़ा और विषाद हो,
नित चेतना नव खोलता है।
संतप्त मन कुछ बोलता है।

मन तो बहुआयामी होता है.......... कुछ न कुछ बोलेगा....सुन्दर रचना

Unknown said...

anupam geet!
uttam geet!
abhinav geet!
___________________badhaiyan_____

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

bolta to hai par sunta koun hai? narayan narayan

परमजीत सिहँ बाली said...

sundar rachanaa hai.badhaaee.

Yogi-at Meditation! said...

Aap sabhi ke aashirvachanoon ke liye kotishah dhanyavad