संसृति उदधि के मध्य में,
डूबा अहम् के मद्य में,
चिर धीर मानस डोलता है।
संतप्त मन कुछ बोलता है। ।
निर्भीक घूमें अरि वनों में ,
संघर्ष प्रिय जो हर छड़ों में ,
निज बल को वह सिंह तोलता है।
संतप्त मन कुछ बोलता है। ।
घन गहन कालिमा रात की,
न कामना किसी साथ की,
अन्तः किरण को मोलता है।
संतप्त मन कुछ बोलता है। ।
पुष्प का उपवन मिले ,
या कंटकों का वन मिले ,
आनंद में वह झूलता है।
संतप्त मन कुछ बोलता है। ।
रंग हो और राग हो,
या पीड़ा और विषाद हो,
नित चेतना नव खोलता है।
संतप्त मन कुछ बोलता है। ।
जो वह प्रेम का सोता मिले ,
तो यह चिरंजीवी खिले ,
अंतर निज सतत टटोलता है।
संतप्त मन कुछ बोलता है। ।
Sunday, May 31, 2009
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5 comments:
रंग हो और राग हो,
या पीड़ा और विषाद हो,
नित चेतना नव खोलता है।
संतप्त मन कुछ बोलता है।
मन तो बहुआयामी होता है.......... कुछ न कुछ बोलेगा....सुन्दर रचना
anupam geet!
uttam geet!
abhinav geet!
___________________badhaiyan_____
bolta to hai par sunta koun hai? narayan narayan
sundar rachanaa hai.badhaaee.
Aap sabhi ke aashirvachanoon ke liye kotishah dhanyavad
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