क्यूं गीत नही मैं लिख पाया!
न प्रणव नाद का गुंजन था ,
न ब्रह्म ज्ञान अभिसिंचन था ,
न सजल प्रेम न अटल भक्ति,
कसता जाता बस बंधन था,
अधोगमन जो निश्चित था,
क्यूं न वह मुझको दिख पाया?
क्यूं गीत नही मैं लिख पाया!
अन्तर मन का अनुनाद कहाँ था?
नश्वर जीवन का विषाद कहाँ था?
चतुर चितेरा भ्रमित हुआ क्यूं?
संजीवन का उल्लास कहाँ था?
मन भ्रमर वृत्ति में उलझा था,
कैसे न मुझको दिख पाया?
क्यूं गीत नही मैं लिख पाया!
निद्रित अंतर्दृष्टि हुई क्यूं?
जीवंत हुई नश्वर समष्टि क्यूं?
अंतर्बोध था ठगा हुआ क्यूं?
जगत बोध था जगा हुआ क्यूं?
मन विकल्प का बंदी था,
क्यूं न मुझको यह दिख पाया?
क्यूं गीत नही मैं लिख पाया!
हे प्रिय अनंत अंत की सीमा ,
परिमाण हीन आकार व वीमा,
हे निराश्रयों के नियमित आश्रय,
गुनागार और गुणों की सीमा,
हे श्रष्टा तुम थे सहज साक्षी ,
बस मुझको ही न दिख पाया!
क्यूं गीत नही मैं लिख पाया!
हर बंधन से करते विमुक्त तुम,
व्यापक हो, जाग्रति सुषुप्ति तुम,
संजीवनी के अनंत स्रोत तुम,
प्रेम , दया से ओत प्रोत तुम,
प्रहरी तुम थे सजग हे स्वामी,
अब मुझको है यह दिख पाया,
यह गीत अभी मैं लिख पाया!
यह गीत अभी मैं लिख पाया!
Saturday, August 1, 2009
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